Tuesday, October 27, 2009

बिछोह की पीडा़ का टोटल रिकॊल - मदन मोहन का संगीत


अभी रविवार को दोपहर को टाईम्स नाऊ चेनल पर टोटल रिकॊल में संगीत सम्राट मदन मोहन पर यादों के झरोकों से उनके जीवन के अंतरंग क्षणों से और सुर संयोजन के अनेक पहलुओं से हमारा तार्रुफ़ करवाया गया, तो मेरे मन की खिडकियों से दिल का पंछी सुरमयी गगन में उड चला और याद आने लगे उनके असंख्य गीत जिन्होंने हमारे सभी संगीतप्रेमी जीवों के दिलों पर बरसों से राज किया है.

मदन मोहन जी जो विरासत में हमारे लिये खज़ाना छोड गये हैं उनको हम अपने अंतरंग मन के सेफ़ डिपोझिट वाल्ट में रख कर दिवाली दिवाली बाहर निकालते हैं , साफ़ सुफ़ करने के लिये, और फ़िर चमका के वापिस रख देते, हैं, कि कही वक्त की ज़ालिम हवायें उन्हे मलीन ना कर दें. कभी कभार उनके गाने यहां वहां ब्याज में सुन लेते हैं, मूलधन तो सेफ़ ही रखा रहता है.

अभी यह महिना कुछ अलग रहा है मेरे लिये.मेरे बरसों पुराने मित्र अरुण में मुझसे एक बार बातें की.मुझे याद आया वह गाना -

मुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी ,हैरान हूं....

क्योंकि वह किसी अनजान बात से खफ़ा हो कर खुद ही दूर चला गया मेरी ज़िंदगी से . आठ दस साल हो गये. बहाना दिया आध्यात्म का. फ़िर पिछले दिनों एक दिन उसका पत्र आया मेरी बिटिया को, जिसे वह बेहद स्नेह रखता था.साथ ही एक छोटी सी मेमोरी चिप भेजी जिसमें पुराने गीतों का खज़ाना था, जो हम बचपन से एक साथ सुनते आ रहे हैं, और पसंद करते आये थे. बस उसे मुकेश पसंद नहीं था, तो मैं उसके सामने नहीं सुनता था.(आज भी कभी मुकेश का गाना सुनाई पडता है तो मन सहसा जांचने लगता है कि कहीं वह तो नहीं है आसपास).

उसमें लताजी के गाये दो गीत बडे ही शिद्दत से दिल को छू गये, जो काफ़ी समय के बाद सुने मैने-

और ना चाहते हुए भी आंसूओं का सैलाब नैनों के बांध तोड कर बहने को बेकरार हो उठा. मगर पुरुष होकर और साथ ही तथाकथित बुद्धिजीवी और मेच्युरिटी के नकाब के ओढ़ने का फ़ायदा लेकर जज़बातों के बहाव को रोक दिया.

पहला गीत है खुशनुमा - लताजी के अल्हड, मासूम स्वर में...

एक बात पूंछती हूं , ए दिल जवाब देना....

कुछ भी याद नहीं आ रहा था कि यह गीत किस फ़िल्म का है,और इसके संगीतकार का क्या नाम है. स्थाई के सुरों की मेलोडी (शंकर) जयकिशन के धुनों के काफ़ी करीब लगी,अंतरा तो और नज़दीक लगा. मगर इंटरल्युड के वाद्य संयोजन बिल्कुल मदन मोहन जी को नामांकित करते हैं. मेरे एक मित्र श्रीधर कामत को मैने पूछा ,जिन्हे सैकडों पुराने गानों की जन्मकुंडलीयां अमूमन याद रहती हैं. वे भी भूलवश इसे बेटी बेटे का गीत बता गये. मगर बाद में नेट पर पता चला कि ये गीत फ़िल्म सुहागन का था जिसे मदन जी नें ही संगीतबद्ध किया था. आईये सुनिये ये गीत विडियो पर और ऒडियो पर भी,
(ताकि सनद रहे- बकलम यूनुसजी)

दूसरा गीत है, मुझे याद करने वाले, तेरे साथ साथ हूं मैं - जो फ़िल्म रिश्ते नाते के लिये मदनजी नें ही सुरों से संवारा है. ना जाने क्यों , हसरत जी का लिखा हुआ ये गाना संवेदनाओं के सभी बंधन तोड गया.ये गाना भी लताजी नें ही गाया है, और इसमें भी मुझे जयकिशन जी के कहीं कहीं दर्शन होते हैं(शायद आम्रपाली का गीत तुम्हे याद करते करते कुछ इसी जोनर का है)वैसे लताजी के बारे में बार बार क्या कहना? उनके अलावा और कोई ये गीत गा सकेगा - इतनी पीडा़ , उद्वेग और विरह की टीस की इतनी गहरी अभिव्यक्ति के साथ- यह संभव ही नहीं.और हसरत जी के बोल - एक एक शब्दों पर गौर करें और आहें भरने का हिसाब नहीं रख पायेंगे आप.

वैसे पता नहीं क्यों , लगभग इसी सिच्युएशन का एक और गीत हमेशा सुनता आया था और दिल के काफ़ी करीब है भी -
तू जहां जहां चलेगा , मेरा साया साथ होगा.. (जो इसी राग में गूंथा गया है)

मगर यह गीत उसके भी पार चला गया, और कहीं ना कहीं मेरे मित्र के बिछडने के सांकेतिक एहसास को एकदम से ताज़ा कर गया वह पुराना ज़ख्म- जिसे नाज़ों के साथ पाल कर रखा था, जिसपर रोज़ पट्टी बांध कर रखता था, और कभी कभार खपली उखेड भी देता था- ताकि ज़ख्म हरा रहे, और यार के बिछोह की पीडा का एहसास हर पल इसलिये रहे कि ज़ख्म भर जाये तो एक अजीब मानूस कहीं अजनबी हो ना जाये...

गीत आप भी सुनिये...

मुझे याद करने वाले, तेरे साथ साथ हूं मैं...




शायद अरुण के टफ़ एक्स्टिरीयर के खोल के अंदर की कोमल हृदय की भावाभिव्यक्ति हो मेरे लिये, या फ़िर मेरे ही मन के भाव शब्दों में पिघलकर इस गीत में घुस गये हों. रोना तो अब लाज़मी ही है. उस एहसास-ए-दोस्ताना के टोटल रिकॊल के लिये, या उन विरह के भीगे हुए बोलों के साथ सुरों की मेलोडी , या अंतरे में १०० से भी अधिक साज़िंदों के कमाल के स्कोर के पार्श्व में पॆथोस के कोरस का एक खास अंदाज़ (शायद ट्रेमेलो या वाईब्रेटो कहते है इसे- एक निजी भेंट में अमितकुमार ने वाईब्रेटो कहा था और अन्नु कपूर नें ट्रेमेलो- अगर आपमें से कोई रोशनी डाल सके तो..मुझे लगता है इसे फ़ाल्सेटो कहते हैं)

वैसे एक गीत इन्ही शब्दों पर और है मल्लिका पुखराज जी जी की खनकभरी आवाज़ में...

अब आप मुझे माफ़ करेंगे अगरचे आप भी मदन मोहन जी की इस महान स्वर रचना को सुन कर रो पडे हों...

और अगर नहीं रोये.... तो माफ़ी मांग लिजियेगा... मुझसे नहीं, मदन मोहनजी से....

Wednesday, October 21, 2009

किशोर दा के कॊलेज जीवन के संस्मरण!- ये दिल ना होता बेचारा,कदम ना होते आवारा-




आपको शायद याद ही होगा कि हमारे हर दिल अज़ीज़ गायक शेहंशाह जनाब रफ़ी साहब की पुण्यतिथी ३१ जुलाई को मैने श्रद्धांजली के तौर पर एक विडीयो बनाया था --नाचे मन मोरा मगन तिकता धिगी धिगी....
(http://dilipkawathekar.blogspot.com/2009/07/blog-post_30.html)

वह तो एक संयोग था, मगर इस बार हमारे लाडले , मस्ताने ,बहु आयामी, हर हुन्नरी (ऒल राउंडर) कलाकार , गायक किशोर दा की पुण्य तिथी थी १३ अक्टूबर को,जिस दिन इस दिल दिवाने नें किशोर दा की याद में एक और बार एक विडीयो बनाया.

संभव है कि बहुत ही कम लोगों को ये पता होगा कि किशोरदा नें अपनी कॊलेज की पढाई इंदौर में पूरी की. वे यहां के प्रसिद्ध सौ से अधिक साल पुराने महाविद्यालय " इंदौर क्रिश्चियन कॊलेज "में एडमिशन लिया था और इस महाविद्यालय में सन १९४६ से लेकर १९४८ तक तीन सालों में पढाई के अलावा और कई गतिविधियां की.

उन्होने अपने भाई अनूप कुमार के साथ कॊलेज युनियन , होस्टल युनियन में सक्रिय कार्य किया. कॊलेज पत्रिका में लेखन, प्रोफ़ेसरों के साथ मस्ती, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सक्रिय हिस्सा लिया. उन्होंने कई नाटक मंचित किये और संगीत की मेहफ़िलें सजाई.

जैसा कि अपनी पिछली पोस्ट में लिख चुका हूं, मैं उनके जन्म स्थान खंडवा नहीं जा सका, इसलिये जा पहुंचा उनकी गुरुकुल की पावन स्थली में, और वहांकी फ़िज़ा में घुली किशोर दा की सुरमई यादें, कण कण में से झांकती किशोर दा के मधुर , मज़ाहिया व्यक्तित्व की छबि को दिल में उतारता चला गया. और हमेशा अब तो आप सभी हम सफ़र सुरीले मित्रों का भी खयाल था ही, इसलिये अपना छोटा केमेरा भी ले गया.


इसलिये , आज पेश है, वहां की कुछ झलकीयां, याने कॊलेज परिसर,जहां उन्होने अपने जीवन के हसीन पलों को जिया......
वह फ़ूटबॊल गाउंड,जहां वे और अनूप कुमार फ़ूटबाल मेच खेला करते थे......
होस्टल का वह कमरा नं. ४ , जिसमें कभी उनका रैनबसेरा हुआ करता था,जहां उन्होने अपने जीवन के रंगीन सपने देखे....
वह ब्रॊंसन हॊल जहां उन्होने अपने नाटक खेले, मस्ती भरे गीत गाये,और अपनी गायन एवम अभिनय प्रतिभा को निखारा....
वह इमली का पेड़, जहां उन्होने कई धुनों का सृजन किया जिन्हे हमने बाद में उनकी फ़िल्मों में सुना....
वह केंटीन जहां उनके पांच रुपये बारह आने अभी तक बकाया है....
उनकी क्लास रूम जहां उनकी अंग्रेज़ी के टीचर से झडपें हुआ करती थी....
वह दुध जलेबी की सुबह के नाश्ते की दुकान, जो उन्हे उनके घर की , खंडवा की याद दिलाती थी.



मैं उनके चित्र यहां प्रस्तुत करता हूं, और साथ में पेशे खिदमत है, दिलीप के दिल से इज़हारे अकीदत के तौर पर एक Audio Visual Tribute जिसे देख कर सुनकर आप आनंदित होंगे, और उन लोगों को भी सुकून हासिल होगा जो किशोर दा को इंतेहां मुहब्बत करते हैं और इबादत करते हैं.इसमें आप क्रिश्चियन कॊलेज के परिसर,ब्रोंसन हॊल जहां सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे,क्लास रूम, होस्टल का परिसर और कमरा नं ४,वह इमली का पेड़ जहां जाकर मैं भी एक गीत गाकर आया, जैसे कि किशोर दा के मंदिर में जाकर आरती गा रहा हूं.


वह इमली का पेड़, जिसके नीचे बैठ कर किशोर दा अलग अलग धुनों का सृजन किया करते थे.यही वह जगह है, जहां उन्होनें प्रसिद्ध गीत " मैं हूं झुम झुम खुम झुम झुमरू..." की धुन बनाई थी, और अपने दोस्तों को सुनाई थी.




ये चित्र ब्रोन्सन हाल का है जहां किशोर दा के कार्यक्रम हुए . अगला चित्र उस स्टेज पर रखे हुए डायस टेबल का है, जिसके पीछे छुपकर किशोर दा गाते थे. सुना है, कि तब वे बडे ही शर्मीले स्वभाव के थे , और जब भी उनको गाना गाने को कहा जाता , वे घबरा जाते थे.फ़िर दोस्तों ने ये शगुफ़ा किया कि उन्होने इसके पीछे छिपकर गाना गाया, और उनके मित्रों में से एक नें सामने होंठ हिला कर गाने का अभिनय किया(फ़िल्म पडोसन का पार्श्व गायन याद है!!)

बाद में एक बार लद्दाख में सुनील दत्त जी के साथ अजंता आर्ट्स के तले सीमा पर जवानों के मनोरंजन के एक कार्यक्रम में जब किशोर दा को गाने के लिये कहा गया, तो पता नहीं क्यों, वे फ़िर से झिझकने लगे, और गाने से मना करने लगे. बडी मुश्किल से सुनीलजी नें उन्हे पर्दे के पीछे से गाने के लिये मनाया, और ऐन वक्त पर, पूर्व योजना के अनुसार गाने के बीच में पर्दा उठा दिया!!!


जिस होस्टल में वे रहे वहां के चित्र - गलियारा और कमरा नं ४.







आपको फ़िल्म चलती का नाम गाडी का ये गीत तो याद ही होगा - पांच रुपैय्या बारह आना.....
जी हां जनाब, ये जुमला उनके छात्र जीवन से ही जुडा हुआ है. किस्सा हुआ यूं था कि इसी कॊलेज के कॆंन्टीन में किशोर दा के पांच रुपैय्या बारह आने बाकी थे जो अभी तक बकाया हैं!!(चित्र केंटीन वाले का)

मैने इस फ़िल्म को बनाने में काफ़ी जद्दोजेहेद भी की क्योंकि मैं एक एमेच्युअर हूं और इसे एडिट करने और ऒडियो मिक्स करने में दो चार दिन लग गये.इसलिये, आप मुझे क्षमा करेंगे, अगर कुछ ग़लती हुई हो तो.



जिनके कंप्युटर पर स्पीड की वजह से ये फ़िल्म नहीं चल रही हो, उनके लिये ही ये सभी चित्र भी लगाये गये हैं. साथ में दिलीप के दिल से ये गीत भी सुन सकते हैं- ये दिल ना होता बेचारा...

Friday, October 16, 2009

किशोर दा के साथ- कश्ती का खा़मोश सफ़र -



अभी परसों ही हमारे लाडले , मस्ताने ,ऒल राउंडर कलाकार , गायक किशोर दा की पुण्य तिथी थी. १३ अक्टूबर १९८७ को वे हमको दर्द भरा अफ़साना सुना कर हमेशा के लिये इस ज़िंदगी के सुहाने सफ़र को खत्म कर के कहीं दूर चले गये. दूर गगन के इस राही नें, इस मुसाफ़िर नें हमें अपने खुशनुमा व्यक्तित्व से हंसाया और दुखी मन के स्वरों द्वारा रुलाया.

किशोर दा का जन्म खंडवा में हुआ था. खंडवा याने हमारे शहर इंदौर से ढाई घंटे के रास्ते पर एक छोटा सा कस्बा, जहां किशोर दा का बचपन गुज़रा. आपको सभी को पता ही है, कि वे अपने जन्मस्थान से कितनी मुहब्बत करते थे, कि उन्होनें यह वसीयत भी कर रखी थी कि उनका अंतिम संस्कार खंडवा में ही किया जाये.

इस बार मैंने सोचा था कि उनके जन्मस्थान खंडवा जाऊं , जहां उनके जन्म दिन और पुण्यतिथी पर उत्सव सा माहौल होता है. सारे देश के कोने कोने से किशोर दा के दीवाने यहां आते हैं ,उनके पैतृक घर और समाधि स्थल को बडे भक्तिभाव से विज़िट करते हैं. वहां स्थानीय लायंस क्लब द्वारा एक कार्यक्रम भी रखा था, जिसमें मुझे भी किशोरदा के गीत गानें का आमंत्रण था. मगर किसी कारणवश वह निरस्त हो गया.

तो मैने सोचा कि हमेशा की तरह आज मैं फ़िर उसी जगह जाऊं जहां की पावन ज़मीं पर किशोर दा के कदम पडे थे, जिस फ़िज़ां में उनकी गायी हुई स्वरलहरीयां अभी भी अठखेलियां करती होंगी.

इसलिये मैं जा पहुंचा इंदौर के उस महाविद्यालय में जहां किशोर दा नें अपने कोलेज जीवन के तीन साल गुज़ारे.

हां, मैं बात कर रहा हूं इंदौर क्रिश्चियन कॊलेज की.

वहां की झलकीयां मैं दिवाली के बाद कुछ चित्रों और विडियो के ज़रिये पेश करूंगा.एक Audio Visual Tribute जिसे देख कर सुनकर आप आनंदित होंगे, और उन लोगों को भी सुकून हासिल होगा जो किशोर दा को इंतेहां मुहब्बत करते हैं और इबादत करते हैं.


रात को हमेशा की तरह , अपने स्टडी में बैठ कर मैने किशोर दा के पुराने दर्द भरे नगमें गाये, वो नगमें जो मैं खंडवा में गाने वाला था.

इसी बीच, जैसा कि आपको पिछले साल बताया था, किशोरदा का एक गीत मेरे ज़ेहन में बहुत गहरे बैठा हुआ है, जो मेरे किशोर वय में हुए एक मीठी याद की वजह से है.

गीत है कश्ती का खा़मोश सफ़र है, शाम भी है , तनहाई भी, दूर किनारे पर बजती है, लहरों की शहनाई भी...
आज मुझे कुछ कहना है, आज मुझे कुछ कहना है.

यह गीत किशोर दा नें सुधा मल्होत्रा के साथ गाया था, जिसमें दिलों के कोमल एहसासातों की अभिव्यक्ति बडी ही शालीन ढंग से की गयी है, जो आज की पीढी के लिये एक आश्चर्य या शगुफ़ा हो सकता है.

यह गीत मेरे किशोर वय में भोपाल में मैंने हमीदिया कॊलेज के स्टेज पर सुना था, जहां मेरे पिताजी प्रोफ़ेसर थे, और श्री मल्होत्रा थे प्रिंसिपल ,जो सुधा मल्होत्रा के पिताजी थे.तो गॆदरींग में यह गीत सुधाजी नें गाया था, और चाहा था कि कोई स्थानीय गायक उनके साथ वह गीत गाये. किसी नें मेरा नाम भी सुझाया था, मगर सुधा जी नें मुझे देख कर हंस कर बोला, अरे तुम तो अभी छोटे हो!! तुम रहने दो.

बस , आज यह गीत गा ही देता हूं, अब तो बडा हो ही गया हूं. मगर फ़िर मैंने हमारे ब्लोग जगत की प्रसिद्ध कवियत्री, गायिका, फ़ोटोग्राफ़र, पर्यटन विषेशग्य, सुश्री अल्पना वर्मा से अनुरोध किया कि इस दोगाने को मेरे साथ गायें , जो उन्होने सहर्ष स्वीकार किया और उपकृत किया. वे भी किशोर दा की तरह हर हुनर में विषेश कमाल रखतीं है!!!

इस गाने की विषेशता ये है, कि इसमें कोई कराओके का ट्रेक इस्तेमाल नहीं किया है, मगर मूल पार्श्व वाद्यों को मिक्स करनें का प्रयत्न किया गया है.आशा है आपको पसंद आयेगा.

आपको साथ ही में धनतेरस की शुभ कामनाये. आपको यह वर्ष धन और समृद्धी की वर्षा लेकर आये. साथ ही किशोर दा नें जैसे कहा है कहा है- आपको संतोषधन मिले, आनंद धन मिले यही कामना.(जैसा कि इस गीत को गाकर मुझे मिला)

दिवाली के बाद फिर मिलता हूं अपनी रिपोर्ट के साथ.... ब्रेक के बाद!!!

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Saturday, October 10, 2009

गुरुदत्त - एक संस्मरण -चौदहवीं का चांद


समय अभाव के कारण, पिछली पोस्ट थोडी देर से नश्र हुई, फ़िर एक दम संयोग से गुरुदत्त जी का स्मरण दिन आ गया. दोनों पोस्ट मिक्स हुई और बडी हो गयी. इसलिये उनका एक संस्मरण अब लिख रहा हूं, ११ ता. को , इसलिये क्षमा करें.

आपनें पिछली पोस्ट पढी ही होगी.( चौदहवीं का चांद हो) उस गीत पर एक और बात बतानी थी, मगर उसके पृष्ठभूमी के साथ, जो आशा है आप पसंद करें. इसे मैने स्व. गुरुदत्त की सगी बहन श्रीमती ललिता लाज़मी से बातचीत के दौरान सुना था.

किस्सा यूं है--


कुछ साल पहले इंदौर में हर साल होने वाले लता मंगेशकर पुरस्कार समारोह के आयोजन समिति के सदस्य होने के नाते मुझे मुंबई जाना पडा प्रसिद्ध संगीत निर्देशक श्री भुपेन हज़ारिका जी से मिलने . उन्हे मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उस साल के लता मंगेशकर पुरस्कार से नवाज़ा गया था. यह अवार्ड सन १९८३ से हर साल बारी बारी से एक गायक/गायिका और संगीत निर्देशक को दिया जाता है. इसमें पुरस्कृत कलाकार को अवार्ड की औपचारिकता के बाद अपना पर्फ़ोर्मेंस भी देना पडता है.सो, भुपेन दा से अनुरोध करना था कि वे अपने कुछ गीत गायें . अतः , यह ज़रूरी था कि उनके साथ कार्यक्रम की रूपरेखा और साज़िंदों की बातचीत तय हो जाये.

उन दिनों वे मुंबई में थे और स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे.उनकी आंखों का ऒपरेशन हुआ था, और वे प्रसिद्ध महिला निर्देशक सुश्री कल्पना लाज़मी के घर में रुके हुए थे. फ़ोन पर किसी महिला से बात हुई, जिसने खुद भुपेन दा से पूछ कर शाम को छः बजे का समय तय किया.

जब मैं वहां पहुंचा, तो एक अधेड , शालीन महिला नें दरवाज़ा खोला, और बडे आदर के साथ मुझे ड्राईंगरूम में बिठाया. कहा कि अभी अभी दवाई डाली है आंख में ,इसलिये आधा पौन घंटा रुकना पडेगा आपको. मैं मिलकर ही जाना चाहता था इसलिये वहां रखे हुए एक पुराने फ़िल्मफ़ेयर को लेकर पढने लगा.(संयोग से उस पर गुरुदत्तजी का चित्र था)

वह विदुषी देवी सी प्रतीत होने वाली महिला बाद में मेरे साथ ही बैठ गयी और हम ओकेज़नली एक दूसरे की तरफ़ देखते और वे स्नेहवश मुस्कान से मेरा स्वागत करती.हम कुछ बोल नहीं रहे थे.

फ़्लेट्नुमा वह घर बडे ही एथनीक स्टाईल में जमाया गया था( जैसे चमार की नज़र जूते पर ही पदती है, मेरी नज़र आंतरिक साजसज्जा पर पडी थी). मैने कौतुहुलवश उनसे पूछ ही लिया कि इस फ़्लेट का ईंटिरीयर डिज़ाईन किसनें किया है. वे हंस पडी, और उन्होने कहा मैंनें ही किया है. मैं कल्पना की मां हूं, ललिता लाज़मी.

मेरे दिमाग में एक दम सौ हेलोजन के बल्ब जल पडे़. अरे , ये तो वहीं है, ललिता आज़मी जो स्वर्गीय गुरुदत्त जी की बहन हैं!!और मैं पिछले आधा घंटे से यहां बेजान वस्तुओं में अपना दिमाग खपा रहा हूं.

मैं फ़िर सम्हल के बैठ गया, जैसे कि किसी मंदिर में देवी के समक्ष गर्भगृह में बैठा था.सौम्य, शांत और सरल व्यक्तित्व से जब रूबरू हुआ तो मन में याद आयी इसाक मुजावर द्वारा गुरुदत्त जी पर लिखी हुई वो पंक्तियां , जिसमें बताया गया था कि गुरुदत्त कितने अशांत, रेस्टलेस, अल्पसंतुष्ट कलाकार थे, और यहां बैठी उनकी बहन शांत सौम्य!!

मैं पूछ बैठा उनसे गुरुदत्त जी के चरित्र के इस आयाम से. वे मुस्काई, और सम्हल के बैठ गयी, गोया Interview दे रही हैं. मैने उन्हे सहज किया और सुनने लगा उनकी मीठी निर्झर वाणी से उनके संस्मरण..

भाई अशांत और रेस्टलेस ज़रूर थे क्योंकि वे पर्फ़ेक्शनिस्ट थे, इसलिये हमेशा असंतुष्ट और सेंसेटिव रहते थे अपने Creation के संदर्भ में. मगर मोटे तौर पर वे तकनीशियनों से ज़्यादह अपेक्षा रखते थे पर्फ़ेक्शन की,एक्टर्स की बनिस्बत. उनके केमेरामेन श्री मूर्ती से तो उनकी हर शॊट में झडप हुआ करती थी, और गरमा गरम वाद विवाद भी हो जाते थे.मगर कलाकारों से थोडे नर्मी से पेश आते थे. मगर जब बात खुद के acting की होती थी तो भी कम संतुष्ट होते थे. फ़िल्म प्यासा के एक सीन में उन्हे मज़ा ही नहीं आ रहा था, और दोपहर से चल रहा उनके अभिनय वाला शॊट ओ के ही नहीं कर रहे थे. सभी नें उनसे कहा कि आप थकें है, तो पॆक अप कर लेतें है, मगर वे मान ही नहीं रहे थे. रात को दस बजे कहीं जा कर माने कि अब कल सुबह करेंगे, और आश्चर्य की बात है, दूसरे दिन सुबह एक ही टेक में शोट ओ के हो गया.

वे बडे सेंसेटिव और संवेदनशील मन के कलाकार थे , और उन दिनों गीता दत्त और वहीदाजी के कारण वे बडे तनाव में रहते थे. फ़िर वे मुस्कुराके बोली , भाई का वहीदा जी से कुछ ऐसा वैसा रोमांटिक नाता नहीं था, जैसा कि अमूमन कहा जाता है.वैसे वहीदा जी उनके जीवन में बहार बन के ज़रूर आई.

वहीदा जी भी जब भी शोट देती थी तो संयोग ये होता था कि वे एक शॊट के बाद दूसरे रीटेक में ठीक नहीं करती थी और बाद में तीसरे शोट में फ़िर ठीक हो जाता था, तो इस alternative Shots के OK होने का राज़ नही समझ पाते थे भाई, और मज़ाक में वे वहीदा जी की खिंचाई भी कर दिया करते थे.

जिस दिन रात को उनका निधन हुआ, उसके कुछ दिन पहले ही उनसे फ़ोन पर बातें हुई थी, जब भाई बडे खुश थे और वे बता रहे थी कि उन्होने अभी अभी एक नयी फ़िल्म शुरु की थी बंगला भाषा में जिसका नाम रखा था गौरी, जिसमें गीता दत्त अभिनय करने वाली थीं और एक सीन भी पिछले दिनों शूट कर लिया गया था. गीता दत्त की सृजन धर्मिता की और बिगडे हुए वैवाहिक रिश्तों को बचाने के खातिर यह कदम उठाया था उन्होने.

उस मनहूस रात को वहीदा जी मद्रास(चेन्नई)में थी और मुझसे और कल्पना से रात को ही फ़ोन पर इधर उधर की बातें भी की थी.फ़िर देर रात(अल सुबह) अब्रार अल्वी का फ़ोन आया तो वह मनहूस खबर हमें मिली.

वातावरण में स्वाभाविक रूप से गंभीरता आ गयी थी. तब तक कमरे में से भूपेन दा का मेसेज आ गया था कि आप बेडरूम में ही आ जायें, तो बेहतर होगा. मैंने इस मोनोलॊग या एकतरफ़ा संभाषण को विराम देने के लिये या विषयांतर करने के लिहाज़ से कहा- आपको उनकी कौनसी फ़िल्म पसंद आयी, और कौन सा गान जिसका पिक्चराईज़ेशन आपके लिहाज़ से बढिया था.

वे बोली प्यासा और कागज़ के फ़ूल तो ALL TIME GREAT हैं , और गाने में वक्त ने किया क्या हसीं सितम का फ़िल्मीकरण तो लाजवाब है.
(इसके बारे में मैंने अपनी एक पोस्ट -गुरुदत्त - एक अशांत अधूरा कलाकार - संगीत को समर्पित एक प्रसिद्ध ब्लोग आवाज़ में पिछले साल ज़िक्र किया था जिसका लिंक है-

http://podcast.hindyugm.com/2008/10/remembering-gurudutt-genius-film-maker.html
मेरे ब्लोग पर भी आप गुरुदत्त पर चटका लगा कर देख सकतें हैं....

और दूसरा गाना था - चौदहवीं का चांद हो , या आफ़ताब हो...

इस गीत का ज़िक्र आते ही उनकी बुझी हुई आंखों में जैसे फ़िर चमक आ गयी, और वे इस गीत के बारे में बताने लगीं.

उन दिनों कलर फ़िल्मों का ज़माना आ गया था, और गुरुदत्त जी भी चाहते थे कि ये फ़िल्म भी कलर में बनें. मगर एक्विपमेंट्स आने में देरी के कारण, और डिस्ट्रिब्युटर्स की जल्दी के कारण उन्होने फ़िल्म Black & White में ही पुउर्ण की और ये गीत भी.साथ में फ़िल्म को सेंसर से भी पास करवा लिया.

मगर फ़िर उन्हे क्या सूझा, उन्होने इस गीत को फ़िर से शूट करनी की ठानी, वह भी कलर में, क्योंकि तब तक एक्विपमेन्ट आ गये थे.ये तय किया गया कि फ़्रेम से फ़्रेम, शोट से शोट कॊपी कर के वैसे ही फ़िर से शूट किया जायेगा, चूंकि पहले के B&W रशेस तो बढियां ही थे.

खैर, जैसा कि प्लान किया गया था, वहीदाजी को बुलाया गया, और शूटिंग बढिया तरीके से संपन्न हुई.चूंकि फ़िल्मी करण रंगीन था, बडे बडे आर्क लाईट्स,करीब रखे गये, जिसकी वजह से वहीदा जी का स्किन झुलसने लगा. तो बडी मुश्किल से आईस पॆक रख कर शूटिंग संपन्न की गयी.तो उनकी आंखे भी इसीलिये लाल हो गयी थी.फ़िल्म को फ़िर से सेंसर बोर्ड को भेज दिया गया.

मगर सभी तब भौंचक्के रह गये जब उन्हे मालूम पडा सेंसरबोर्ड नें फ़िल्म को पास करने को मना कर दिया क्योंकि उन्होने इस गीत को बडा ही हॊट (HOT) बताया!!!! भाई नें उन्हे समझाने की कोशिश की कि सब कुछ तो वही था एक कलर के सिवा. तो पता है, उन्होने क्या जवाब दिया?

कहा, वहीदा जी की आंखे बडी लाल हो रही हैं, और इस बात को उन्होने Sensual and Suggestive करार कर दिया!!

भाई उस दिन बडे हंसे थे.खैर फ़िल्म तो पास हो गयी, मगर ललिताजी नें कहा कि अगर वे सेंसर बोर्ड के सदस्य आज जीवित होंगे और आज की फ़िल्में देखेंगे तो तुरंत ही प्राण छोड़ देंगे!!!

चूंकि बात नार्मल हो चुकी थी मैं उस साश्वी के सानिध्य से उठकर भूपेन दा के कमरे में चला गया.

(इन संस्मरणों को याद करना याने पुरानी यादों की जुगाली करना. जिनके लिये ये कलाकार , उनकी कला और उनका कला के प्रति योगदान और समर्पण का थोदा बहुत भी महत्व है उसे यूं लगता है कि कुछ क्षण हमनें भी टाईम मशीन में जाकर उनके साथ बिता लिये हैं. यही तो हमारे लिये elixir है, च्यवनप्राश है!!!- क्या आप सहमत हैं?

चौदहवीं का चांद और सुहानी रात का जो मि़क्स और You Tube Video का लिंक पिछली पोस्ट पर डाला था वह चला नहीं था किसी के लिये. अतः फ़िर से लगा रहा हूं.



http://www.youtube.com/watch?v=tKlrQ4TMxTc

Friday, October 9, 2009

ए चौदहवी के चांद - सुहानी रात ढल चुकी है,, ना जाने तुम कब आओगे?



पिछला हफ़्ता बडा़ ही हट के गया.

याने पिछले हफ़्ते एक शब्द चांद बार बार कानों पर पडा़, क्योंकि बात साफ़ है.

पिछले हफ़्ते शरद पुर्णिमा की मदहोश रात थी.

सुनते आये हैं, कि इस रात को चंद्रमा से अमृत बरसता है. लगता है सही है, क्योंकि, पिछले कई सालों से बिना नागा, इस रात को संगीत के अमृत स्वर कानों में पडते रहते हैं. वातावरण में मस्ती, सुरीली तरन्नुम का आलम तारी रहता है.फ़िर रात को परमानंद की प्राप्ति - याने केशर पिस्ता युक्त गाढा दूध. बस और क्या चाहिये.

बस १ ता. से माहौल शुरु हो गया था. मैं जिस लायंस क्लब से जुडा हुआ हूं उसके तत्वावधान में शरद पूनम की संगीत रजनी हर साल की तरह से संपन्न हुई. इस दिन खास कर , पूणें से प्रसिद्ध पियानो एकोर्डियन के वादक श्री अनिल गोडे पधारे थे, जिन्होने अपने सुरीले साज से, और अपने हुनर के कमाल से इस बेजोड और बजाने में क्लिष्ट साज़ पर इतने पुराने गीत सुनाये कि बस मस्त कर दिया. अनिल जी हेमंत दा, तलत मेहमूद्जी,किशोर दा आदि के साथ देश विदेश में बजा चुकें हैं. पिछले साल पुना में मिले थे जब सुदेश भोंसले के साथ भी बजाया था.

मात्र एकोर्डियन और ढोलक,कांगो पर बजाये हुए मधुर गानों की बानगी तो लीजिये -

चांद सा रोशन चेहरा, सुहानी रात ढल चुकी , फ़ूलों के रंग से,डम डम डिग डिगा, रमैय्या वस्ता वैय्या , और भी कई.

एक और खुशनुमा बात यह थी कि मेरे अनुज - मित्र संजय (श्री संजय पटेल) भी इस कार्यक्रम में आये थे. अमूमन ऐसी संगीत रजनीयों में संजय जी का संगीत पर समृद्ध एंकरिंग और मेरे स्वर का भी संयोग जमा करता था पहले कई बार, मगर एक दो सालों से दोनों की व्यस्तता से ये ग्रह युति हो नहीं पा रही थी.इस दिन कुछ मित्रों नें छेड दिया, फ़िर हम दोनों भी औपचारिता को दूर कर, कुछ कुछ गा बैठे.

फ़िर लगभग हर दिन कोई ना कोई कार्यक्रम था ही. मगर दुख ये रहा कि शरद पोर्णिमा की रात को इंदौर में बारीश की वजह से चांद नहीं दिख पाया, और जैसा कि हमारे यहां परंपरानुसार रात को चांद को नैवेद्य नहीं चढाया जा सका.(प्रस्तुत चित्र में दूध और पूजा का पात्र - जिसमें ऐरावत का आकार बनाया गया है चावल से, और इस दूध के बर्तन को चांदी की तलवार रख कर चंद्रमा की चांदनी में रखा जाता है.

इसिलिये चांद, चंद्रमा, चंदा आदि शब्दों को लिये हुए गीतों की धूमधाम रही इन दिनों.

एक बडा ही अहम गीत मेरे ज़ेहन में गूंज रहा था इन दिनों, जिसने अपने सहज सरल संगीत स्वर संयोजन और रफ़ी साहब के अमृत भरे केशर पिस्ता युक्त दूध की मानिंद मीठे, सुरीले स्वर के कारण मेरे मन में, दिल में जगह बना ली थी, और दिन रात के अधिकतर क्षणों में मेरे होटों पर आ रहा था. सोचा था कि इन दिनों कहीं गा ही दूं तो मन की ये मस्ती प्रकट में मेनिफ़ेस्ट हो जाये. मगर मौका नहीं आया.है

अचानक किसी मित्र नें भेजा हुआ एक कराओके ट्रॆक मिल गया जो बाज़ार में मिल रहे ट्रेक से बेहतर था, तो बैठ गया रिकोर्डिंग पर, और कर डाली दिल की भडास पूरी.

मगर एक बात पर एकदम दिल झूम गया , वह ये कि, साथ में इसी राग से मिलता जुलता एक और सुरीला और मीठा गीत भी होटों पर कॆट्वाक करने लगा- सुहानी रात ढल चुकी , ना जाने तुम कब आओगे-.

तो बस एकदम इसी गाने के तीसरे अंतरे के वाद्य संयोजन के बेकग्राऊंड में इस गीत का अंतरा भी गाकर देखा. तो संयोग यूं बना कि यह प्रयोग भी उम्दा जम गया.

बस क्या था. सोचा , इसे आपके साथ भी शेयर करूं, आखिर दिलीप के दिल से जो भी स्वर निकलेंगे, आह या वाह, आप तो हमसफ़र हैं ही. तो बस सुनिये इस बार यह गीत...चौदहवी का चांद हो, या आफ़ताब हो.... और सुहानी रात ढल चुकी का मिक्स.(इसे रिमिक्स ना कहिये, क्योंकि उसमें ना जाने क्या क्या किया जाता है- जिसका ज़िक्र फ़िर कभी)




एक और आश्चर्यजनक संयोग ये रहा है कि अभी दो दिन बाद हमारे श्रद्धेय कलाकार , बेजोड निर्देशक गुरुदत्त जी की पुण्यतिथी है (१० अक्तूबर १९६४). जिस फ़िल्म के लिये ये टाईटल गीत बनाया गया था उस फ़िल्म के निर्माता भी गुरुदत्त ही थे.चूंकि यह फ़िल्म मुस्लिम परिवेश में फ़िल्माई गयी थी, गुरुदत्त जी नें इस फ़िल्म के निर्देशन के लिये जनाब मोहम्मद सादिक़ को ज़िम्मेदारी सौंपी. वे वो दिन थे जब अपने ज़माने की सबसे बडी प्रयोगात्मक फ़िल्म कागज़ के फूल की असफ़लता से गुरुदत्त जी काफ़ी निराश थे.

मगर हुआ यूं कि इस फ़िल्म नें सफ़लता के ऐसे झंडॆ गाडे कि कहा जाता था कि १०० फ़िल्मों के बराबर बिज़नेस किया, और गुरुदत्त को दिवाला होते होते बचा लिया.(उनका स्टुडियो भी बिकत बिकते बच गया)

हालांकि वे इसके पहले एस डी बर्मन दा और ओ पी नय्यर के साथ काम कर चुके थे, ये एक आश्चर्यजनक बात थी कि मुस्लिम परिवेश के लिये होते हुए भी उन्होने रवि जैसे संगीतकार को साईन किया बतौर संगीतकार, जिन्होने इस फ़िल्म के संगीत के साथ पूरा न्याय किया.(इसका कारण थे अबरार अल्वी, मगर मज़ेदार बात यहा भी ये है कि भले ही उनने गुरुदत्त जी की इतनी सारी फ़िल्मों में कहानीयां लिखी, मगर इस फ़िल्म की कहानी लिखी थी सागर उस्मानी नें!!)

आपने अगर ये फ़िल्म देखी होगी तो आप ज़रूर गुरुदत्त जी के डिटेल्स , लखनौ की तेहज़ीब , परिधान , नपे तुले डिफ़ाईन किये हुए चरित्र और उनके मेनरीझ्म की बारिकी में गये होंगे और दाद देने को जी चाहता होगा आपका.हालांकि निर्देशन मोहम्मद सादिक का था , इस फ़िल्म में गुरुदत्त का ही स्टांप था. और तो और सभी गाने शत प्रतिशत गुरुदत्त जी नें ही फ़िल्माये थे, जो उनके फ़ोटोग्राफ़र श्री वी के मूर्ती नें कबूल की थी.

तो अब देखिये भी उस इम्मोर्टल , कालजयी गीत का विडियो भी, जिसमें वहीदा जी का मूर्तिमंत सौंदर्य, अलसायी हुई लाल डोरे लिये आंखें, गुरुदत्तजी का सुकून भरे दिल से उस खूबसूरती की तारीफ़ में रोमांटिक अंदाज़ में इस गीत को गाना, और साथ में खुद मोहम्मद रफ़ी साहब की शहद से भी मीठी, सुरीली, और सात्विक स्वर एक ऐसा आलम तारी कर देते हैं कि पाकीज़गी से भरे इस हुस्न का ये नशा बिन पिये ही आपके रूह में कब दाखिल होकर आपको मदमस्त कर देता है, इसका होश भी आपको नहीं रहता.

(बिना शादी शुदा मित्र गण मुआफ़ करेंगे, क्योंकि उन्हे पता ही नहीं है कि अभी क्या बाकी है उनकी ज़िंदगी में, और शादी शुदा मित्र भी मुआफ़ करेंगे, कि दर्दे दिल छेड दिया गया है, और आप को नोस्टाल्जिया के गहरे समंदर में डुबा दिया गया है. अगर तैर कर ऊपर आ सकते हो तो आ जाईये, और डूबना हो तो मेरे साथ हो लिजिये......)



गुरुदत्त जी और इस गाने के बारे में एक रोचक संस्मरण बताये बगैर नहीं रह सकता, जिससे आप हंस पडेंगे - मगर यह पोस्ट काफ़ी लंबी हो गये है. मेनेजमेंट का खिलाडी हूं इसलिये सभी मिठाईयां एक साथ नहीं परोसूंगा.

तो दस तारीख को फ़िर पधारें गुरुदत्तजी की पुण्यतिथी के दिन , तो यह भी आपके साथ शेयर करूंगा.

शब्बा खैर!!
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